अक्षय यत् किंचित् दीयते दान, स्वल्पंवा यदि वावह।
तत्सर्वमक्षयंयस्मात, तेनेयं अक्षया स्मृता।
जो भी थोड़ा बहुत दान आज के दिन दिया जाता है वह अक्षय (अविनाशी तथा अनन्तफलदायक होता है इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहा गया है।
वैशाखशुक्ला तृतीया के दिन त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ था यह उसी की स्मृति में मनाई जाती है। कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है चाहे ज्योतिष के आधार पर मुहूत निकलता हो या नहीं यह पावन पर्व कहलाता है। इस तृतीया का महत्व इसलिए और अधिक बढ़ गया क्यों कि भगवान, परशुराम का जन्म इसी दिन हुआ था। उनका नाम केवल पहले राम था परंतु धर्म तथा गौरक्षा के लिए दुष्टदमन के लिए हाथ में परशु (फरसा) उठा लिया तो नाम परशुराम हो गया। बाल्यावस्था में ही बालक राम तपस्या के लिए हेमाद्रिपर्वत चले गए जब उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रवाहु) का आतंक सुना तथा उसके द्वारा भारती की अखंडता पर आक्रमण तथा आश्रमों का उजाड़ना, पिता जमदग्नि का वध, गाय का अपहरण और अनादर सुना तो वह तपस्या छोड़कर भारत की रक्षा के लिए धर्मयुद्ध में कूद पड़े क्योंकि देश धर्म की रक्षा किसी भी तपत्ता में बड़ी है। । वस्तुत सहस्रवाह विदेशी कहा जाता था। उसने सर्वप्रथम महिष्मती नगरी में अधिकार कर अपना भारत में राज्य स्थापित किया । यह हैहयवंशी था । हैहय का अर्थ देवी भागवत के अनुसार उन्हें कहा जाता था जो हय-घोड़ों में चढकर आए और भारत में व्यापार किया तथा सम्पत्ति लूटकर भाग गए। वह अपने को क्षत्रिय मानने लगे थे।
सर्वप्रथम उसने ब्राह्मण को वश में करने के लिए खुब दान दिया कुछ साल के पश्चात दिये दान को कर्ज घोषित कर ब्राह्मणों से धन की वसली करने लगा। वह जानता था कि यदि भारत पर कब्जा करना है तो ब्राह्मणों को दयनीय फिर आश्रमों का ध्वंस करना आवश्यक है जो कि आज तक विदेशी आक्रान्ता धर्मद्रोह करते आए हैं। कई राजाओं को भी अपने वश में कर लिया था प्रायः राजा उसके भय आतंक से धर्मद्रोही देशद्रोही बन गए थे। उस समय के प्रसिद्ध आश्रम जमदग्नि आश्रम पर आक्रमण कर महर्षि जगदग्नि को मारा तथा आश्रम की काम धेनु का अपहरण किया। महेन्द्र पर्वत तपस्वी राम को सहन नहीं हुआ तथा सभी धर्मद्रोही राजाओं को गद्दी से उतार कर उनकी राजनैतिक हत्या तथा कुछ का वध सहस्रावाहु का भी वध किया। सारे देश में धर्म का शंखनाद हो गया यहां हम स्पष्ट कर दें कि चाहे जिस परशराम जाति का व्यक्ति राजा हो उसे क्षत्रिय ही माना जाता था क्योंकि राज्यसंचालक क्षत्रिय ही कहे जाते थे यदि क्षत्रिय जाति के राजाओं का वथ परशुराम ने किया होता तो उस समय प्रसिद्ध क्षत्रिय राजा जनक तथा दशरथ का वध क्यों नही किया। अपितु श्रीपरशुराम ने भारत का अखंडराज्य संचालन करते हुए क्षत्रिय शिरोमणि श्रीराम को आदर्श मानकर सारा चक्रवर्ती राज्य श्रीराम के हाथों में समर्पित किया फिर निश्चित होकर तपस्या के लिए चले गए थे यदि उस । समय परशराम का अवतरण नहीं हुआ होता तो आज यह भारत भारत नहीं होता । भारतीय संस्कृति तथा धर्म का नामोनिशान नहीं होता। श्रीपरशुराम ही राष्ट्रीय एकता, देश की अखंडता एवं लोकतंत्र के जनक थे। आज उनके चरित्र से हमें शिक्षा लेनी चाहिए जैसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा 'रामः शस्त्र मृतामहतू' शस्त्रापारियों में परशुराम हूं। श्रीपरशुराम के आदर्श को लेकर ही श्रीकृष्ण ने अन्यायी अधर्मी कौरवों से वर्मयुद्ध किया था। परशुराम केवल ब्राह्मणों के नहीं अपितु सारी मानवता के आदर्श हैं।
भगवान परशुराम की जयंती केवल ब्राह्मण मनाते हैं मिथ्याश्रम तोड़कर राष्ट्रीय रूप में सार्वजनिक मनाई जानी चाहिए तथा हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि :
1- प्रत्येक तपस्या से भी महान है राष्ट्र की रक्षा तथा अपने भारत की
२- आक्रान्ताओं को मुंह तोड़ जवाब देना अखंडता। तथा भारतीयता के स्वाभिमान की रक्षा । धर्मयुद्ध के लिए तैयार रहना क्योंकि देश रक्षा प्रथम धर्म है।
३- आज तक जितने भी आक्रमण हुए हैं सर्वप्रथम धर्मस्थानों तथा ब्राह्मणों की जीविका पर हुए हैं। अतः देश को बचाने के लिए धर्मरक्षा आवश्यक है।
४- सरदार पटेल ने भी सभी राज्यों का भारत में विलय किया यही कार्य कभी परशुराम ने भारत के हित में किया था। उस समय का भारत तो सारे संसार का चक्रवती राज्य था। ब्राह्मणों को भी अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए देश तथा धर्म की रक्षा जयन्ती के लिए फिर परशुराम बनना होगा। परशुराम जयंती मात्र मनाने से काम नहीं बनेगा। देश के विकास के साथ जुड़ना होगा। आज भी परशुराम जीवित हैं उनका नाम अमर विभुतियों में है।
'अश्वत्थामा वलिप्सो, हनुमांश्च विभीषणः ।
कृपः परशुरामश्च, सप्त ते चिरजीविनः ।।
अश्वत्थामा (द्रोणपुत्र) राजाबलि, वेदव्यास, राम भक्त हनुमान, लंकेश विभीषण, कृपाचार्य तथा भगवान परशुराम सर्वदा विद्यमान अमर है। जो लोग आज भी इनका नाम शयन के पूर्व स्मरण करते हैं। उनकी आयु बढ़ती है अशुभ स्वप्न नहीं आते हैं।