भारत का वीर पुत्र - महाराणा प्रताप

हम राष्ट्र विटम के रखवाले, जीवन का मोह विसार दिया।


माटी से सींचा मरण तंत्र, तिल-तिल जलने से प्यार किया।।


राष्ट्राभिमान के मन्दिर का हम, सदियों से पूजन करते।


श्रद्धा से नित भारत माँ का, सब हिल-मिल कर वन्दन करते।


 भारत की भूमि देव भूमि है, अवतारों की भूमि है। जहां भगवान स्वयं अवतार लेते हैं और अधर्म का नाश करने व धर्म की विजय के लिये स्वयं कष्ट सहन करते हुये दुष्टों का विनाश करते हैं। महापुरुषों का जीवन त्याग, बलिदान एवं लोकहित की साधना में ही समर्पित रहा है। इन्होंने देश-समाज और धर्म की रक्षा के लिये अपने बलिदान दिये लेकिन सिद्धान्तों के साथ किसी भी प्रकार, का समझौता नहीं किया। चाहे भगवान राम का समय था या भगवान कृष्ण का या मुगलों का आक्रमण या अंग्रेजों का राज्य, सभी समय में कोई न कोई महापुरुष ने अवतार लेकर इस भारत माता की रक्षा की है।


जब राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव पर प्रबल प्रहार हुये। तब देव शक्तियां जाग उठी, छिड़ गये समर संहार हुये।।


रामचरित मानस में कहा है "विप्र, धेनु, सुर सन्त हित, लीन्ह मनुज अवतार और गीता में श्री कृष्ण ने कहा 'यदा यदा ही धर्मस्य'। उसी संदर्भ में ऐसे महापुरुषों को याद करना व उन्हें नमन करना हम सभी का कर्तव्य है जिन्होंने मातृ भूमि की बलिवेदी पर हँसते-हँसते प्राण न्यौछावर कर दिये। हिन्दुस्तान की सभी जगहों पर मुगल धर्मान्धता का बोलबाला था। धर्म संस्कृति व माँ बहिनों का सतीत्व खतरे में था। मंदिर टूट रहे थे, उसमें रखी देव मूर्तियां तोड़ी जा रही थी, नरसंहार हो रहा था, अधर्म का साम्राज्य चारों ओर फैल रहा था। संस्कृति के रक्षक ही भक्षकों के साथ रोटी, बेटी का संबंध जोड़ रहे थे। उसी समय देश की रक्षा, स्वतंत्रता के लिये, माँ-बहिनों की इज्जत रखने, काल रात्रि के घोर कष्टों का निवारण करके भारत में हिन्दी स्वाराज्य की स्थापना करने कुम्भलगढ़ में उदयसिंह के घर जेष्ठ सुदी 3 रविवार वि. सम्वत 1597 तदनुसार 9 मई 1840 ई. को वालक ने जन्म लिया। जिसका नाम रखा गया प्रताप सिंह। उस समय भारत वर्ष पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बडे-बडे राजा- महाराजाओं ने अकवर की आधीनता व कवर की आधीनता व स्वीकार कर ली, यहां तक उन्होंने हल्दाघाटा ली, यहां तक उन्होंने हल्दीघाटी शादी-विवाह भी करने लगे। मेवाड युद्ध एक राज्य था जिसने अकबर की वर्णन पवाह भी करने लगे। मेवाड यद सच था जिसने अकबर की वर्णन आधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर 1576 की निगाहें चित्तोड पर थी। यदि पन्नाधय अपनी कोख को राष्ट्र को समर्पित नहीं करती बलिवेदी पर होम नहीं करती तो भारत का इतिहास बदल जाता न उदयसिंह का जन्म होता और न राणा प्रताप का। धन्य - पन्नाधय, धन्य मातृ-भूमि जोतूने ऐसी सपूतों को कोख से पैदा करने का अवसर प्राप्त किया। राणा प्रताप बचपन से ही बहादुर थे। मुगलों के अत्याचार से मुक्ति कैसे जब , मिले यह संस्कार उन्हें अपनी माँ से मिले। माँ ही बच्चे की प्रथम गुरु होती है। 16-17 वर्ष की उम्र में सैनिक अभियान में जाने लगे। उस सभी समय मुगल सम्राट अकबर का राज्य था। उनके सामने सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। अपने संकल्प के कारण जीवन भर प्रताप को अकबर से लड़ना पड़ा। करीब 25 वर्षों तक लड़ते रहे। प्रताप के बचपन में राष्ट्र भक्ति की लौ जग चुकी थी। विराट वृक्ष की तरह फैल है चुकी थी। चित्तौड़ का एक-एक लीन्ह कण त्याग और बलिदान की प्रेरणा श्री दे रहा है। राणा ने प्रतिज्ञा की कि । जब तक मेवाड़ पर सुराज्य कायम याद नहीं होगा में महलों में नहीं रहूंगा, सभी पत्तल दोने में भोजन करूंगा, जमीन की मेरी शैय्या होगी। महाराणा की प्राण प्रतिज्ञा से सभी के मन में देश भक्ति की की भावना का संचार हुआ और दृढ़ का निश्चय किया कि-


जीवन पुष्प चढ़ा चरणों में मांगे मातृभूमि से यह वर।


तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें।।


अकबर ने प्रताप से मिलने के बहुत प्रयास किये। आमेर के राजकुमार मानसिंह को भेजा लेकिन वह भी सफल नहीं हुआ। राजा मानसिंह ने प्रताप को कहा कि वे सम्राट के सामने आकर क्षमा मांगे लेकिन उस वीर सपूत का स्वाभिमान जाग उठा और मानसिंह को कहला दिया कि क्षमा कायर मांगते हैं वीर पुरूर्षों का काम नहीं। वीर सदैव शत्रु से रण क्षेत्र में मिलकर अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र करा लेते हैं. अथवा वहीं अपने प्राण त्याग देते हैं। प्रताप जितने शूरवीर, सहासी व वलिदानी योद्धा थे उतने कुशल शासक, चतुर कूटनीतिज्ञ थे। प्रतापव मु व मुगलों के बीच जो युद्ध हुआ वह हल्दाघाटा हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध का श्याम वर्णन किया । यद का श्यामनारायण पाण्डे ने वर्णन किया है 18 जून 1576 क को याद । रहेगा। जब प्रताप ने 6 हल्दीघाटी के मैदान ' पर अपने पर अपनसैनिकों को धर्म व मात-भमि पर उस मरने की याद दिलाई।


वह महाप्रतापी घोड़ा उड़ जंगी हाथ को सबक उठा,


भीषण विप्लव का दृश्य देख, भय से अकबर दल दबक उठा,


क्षण भर देखा उस चेतक को दो पैरों पर हो गया खड़ा,


फिर अगले दोनों पैरों को हाथी मस्तक पर दिया गड़ा।


प्रताप मानसिंह को युद्ध भूमि में खोज रहे थे। रण-भूमि में इधर- उधर दौड़ लगाते हुये चेतक मानसिंह के हाथी के सामने पहुंच गया, पलक झपकते ही दोनों पैर हाथी के मस्तक पर रख दिये। राणा का भाला बिजली की तरह चमका, महावत वहीं ढेर हो गया, मानसिंह ने अपनी जान बचाई, मार-काट से इतना रक्त बहा कि तालाब बन गया और वह जगह रक्त तलाई के नाम से विख्यात हुई। प्रताप की तलवार को देखकर शत्रु भयभीत हो गये।


चढ़ चेतक पर तलवार उठा,


रखता था भूतल पानी को,


राणा प्रताप सिर काट काट कर,


करता था सफल जवानी को।


इस युद्ध भूमि में झाला मान ने अपने जीवन को बचाने में अहम् भूमिका निभाई। इतिहास में यह अवसर होगा जब सहयोगी अपने नेता को आदेश देता है और नेता उसको सहर्ष स्वीकार करता है। चेतक पर बैठकर हल्दीघाटी से नाला पार कर रहे थे, चेतक घायल था, चल नहीं सकता लेकिन स्वामी के प्राण संकट में हैं बचाना है, एक छलांग लगाई नाला पार कर गये लेकिन वहीं गिर पड़ा, स्वामी भक्त चेतक ने सदा-सदा के लिये आंखे मूद दी, प्रताप रो पड़े। आज भी हल्दीघाटी में चेतक स्मारक है। अकबर चला गया। मानसिंह भी गया लेकिन किसी को अपने अधीन नहीं कर सका। अकबर पराजित हुआ वीरों ने कहा- VAR युगों से यही हमारी, बनी हुई परिपार्टी है खून दिया है मगर- नहीं दी कभी देश की माटी है।


राणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र बनाये रखने में आजीवन संघर्ष किया और उनके साथ हुये भामाशाह जैसे लोग व भील जाति लोग। इस संकट की घड़ी में हल्दीघाटी उन्होंने 25 लाख रुपया नगदी 20 हजार स्वर्ण अशर्फियां महाराणा को । भेंट की और युद्ध जारी रखने का निर्णय लिया। दिवेर घाटी के युद्ध में सुल्तान खां अमरसिंह के भालों से घायल हो गया। पानी-पानी के लिये पुकारा प्रतापसिंह ने अमरसिंह को गंगाजल लेकर भेजा, उसकी प्यास बुझाई, प्रताप के इस उज्जवल चरित्र के आगे सुल्तान खां ने नतमस्तक हो अपने प्राणों को त्याग दिया। अकबर के दरवार में कोई कवि अपनी कविता सुना रहे थे उस समय राजपूताने का चारण भी अपनी कविता को सुनाने सिर पर केसरिया पगड़ी पहनी हुई थी उसको उतारकर हाथ में लिया और सिर झुकाया। इस पर अकबर ने पूछा यह क्या है ? चारण ने उत्तर दिया यह साफा प्रताप ने बांधा है। यह प्रताप की शान है जिसको आज तक आप झुका नहीं सके उसकी पगड़ी को कैसे झुकाऊं, फिर उसने एक कविता पढ़ी 'केसरिया पगड़ी झुके नहीं।' इसके पश्चात् अकवर की मानसिक स्थिति सही नहीं रही, उसको सपने में भी प्रताप दिखने लगा। कवि ने कहा- 


माई ऐहड़ा पूत जण,


जेहड़ा राणा प्रताप।


अकबर सूतो ओझके,


जाण सिरहाने साँप।।


किया महाराणा प्रताप ने 57 वर्ष की उम्र में 25 वर्षों तक राज्य किया और 19 जनवरी 1857 बुधवार तदनुसार माघ शुक्ला 11 वि स. 1653 को उस महाज्योति ने अपनी दिव्य ज्योति को विलीन कर लिया। चांवड से लगभग डेढ़ मील दूर वडोली गांव के निकट बहने वाले नाले के तट पर महाराणा का दाह संस्कार किया गया जो आजकल छेजड़ का तालाब के नाम से जाना जाता है। वहां एक सुन्दर छतरी बनी है। राणा का गौरव, त्याग, अदम्य साहस, देश प्रेम व उनकी उज्जवल गाथा भारत में ही नहीं विश्व के इतिहास में अमर रहेगी और देशवासियों को सदा प्रेरणा देती रहेगी। इसलिये प्रताप हर युग में अजर अमर रहेंगे। प्रताप के मन में एक ही इच्छा थी-


तन समर्पित मन समर्पित और जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।