प्राणस्यि आयामन इत प्राणायाम'। 'श्वासप्रश्वासयो गतिविच्छेदन प्राणायाम'- (यी.सू. 2/49) 'भावार्थ-अर्थात प्राण की स्वाभाविक गति श्वास-प्रश्वास को रोकना प्राणायाम है। हष्ठप्राण-आयाम अर्थात प्राणायाम। प्राण का अर्थ है शरीर के अंदर नाभि, हृदय और मस्तिष्क आदि में स्थित वायु जो सभी अंगों को चलायमान रखती है। आयाम के तीन अर्थ हैं प्रथम दिशा और द्वितीय योगानुसार नियंत्रण या रोकना, तृतीय- विस्तार या लम्बायमान होना। प्राणों को ठीक-ठीक गति और आयाम दें, यही प्राणायाम है। शरीर में स्थित वायु प्राण हैं। प्राण एक शक्ति है, जो शरीर में चेतना का निर्माण करती है। हम एक दिन भोजन नहीं करेंगे तो चलेगा। पानी नहीं पीएँगे तो चलेगा, लेकिन सोचे क्या आप एक दिन साँस रोक सकते हैं? साँस की तो हमें हर पल जरूरत होती है। हम जब साँस लेते हैं तो में भीतर जा रही हवा या वायु पाँच, (भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पाँच जगह स्नायुतंत्र स्थित हो जाता हैं। ये पंचक निम्न हैं- (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।
. उक्त सभी को मिलाकर ही चेतना में जागरण आता है, स्मृतियाँ सुरक्षित रहती है। मन संचालित होता रहता है तथा शरीर का रक्षण व क्षरण होता रहता है। इसी से हमारे प्राणों की रक्षा होती रहती है। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगह उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से घिर जाते हैं। चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं।
(1) व्यान - जो हवा चरवी तथा माँस का कार्य करती तथा उसी में स्थित रहती है उसे व्यान कहते हैं।
(2) समान - समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
(3) अपान - अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
(4) उदान - उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
(5) प्राण - प्राण हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलतः खून में होती है।
वायु की गति - जब हम साँस लेते हैं तो वायु प्रत्यक्ष रूप से हमें तीन-चार स्थानों पर महसूस होती है। कंठ, हृदय, फेंफड़े और पेट। मस्तिष्क में गई हुई वायु का हमें पता नहीं चलता। कान और आँख में गई वायु का भी कम ही पता चलता है। श्वसन तंत्र से भीतर गई वायु अनेकों प्रकार से विभजित हो जाती है, जो अलग-अलग कार्य करके पुनः भिन्न रूप में बाहर निकल आती है। यह सब इतनी जल्दी होता है कि हमें इसका पता ही नहीं चल पाता। हम सिर्फ इतना ही जानते हैं कि ऑक्सिजन भीतर गई और कार्बनडाइ ऑक्साइड बाहर निकल आई, लेकिन भीतर वह क्या-क्या सही या गलत करके आ जाती है। सोचे ऑक्सीजन कितनी शुद्ध थी। शुद्ध थी तो अच्छी बात है वह हमारे भीतरी अंगों को भी शुद्ध और पुष्ट करके सारे जहरीले पदार्थ को बाहर निकालने की प्रक्रिया करके आ जाएगी। जोर का झटका-यदि हम जोर से साँस लेते हैं तो तेज प्रवाह से वैक्टीरियाँ नष्ट होने लगते हैं। कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। %बोन मेरो% सुरक्षित रख में नए रक्त का निर्माण होने लगता और है। आँतों में जमा मल विसर्जित होने हैं, लगता है। मस्तिष्क में जाग्रति लौट साँसे आती है जिससे स्मरण शक्ति दुरुस्त आनन्ददायक हो जाती है। न्यूरॉन की सक्रियता से सोचने क्रियाएँ समझने की क्षमता पुनः जिंदा हो कुम्भक जाती है। फेफड़ों में भरी-भरी हवा अभ्यांतर से आत्मविश्वास लौट आता है। ब्राह्य सोचे जव जंगल में हवा का एक तेज (1झोंका आता है तो जंगल का रोम- से रोम जाग्रत होकर सजग हो जाता पूरक है। सिर्फ एक झोंका। तेजी कपालभाती या भस्त्रिका भीतर प्राणायाम तेज हवा के अनेकों झोंके जैसा है। बहुत कम लोगों में क्षमता होती है आँधी लाने की। लगातार अभ्यास से ही आँधी का जन्म होता, क्रिया है। दस मिनट की आँधी आपके संपूर्ण जीवन को बदलकर रख देगी। हृदय रोग या फेंफड़ों का कोई रोग है तो यह कतई न करें। नियंत्रित करो साँसें- लोगों की साँसें उखड़ी-उखड़ी रहती है, अराजक रहती हैं या फिर तेजी से चलती रहती हैं। उन्हें पता ही नहीं प्रवाह चलता कि कैसे चलती रहती हैं। । क्रोध का भाव उठा तो साँसे बदल जाती है। काम वासना का भाव उठा तब साँसे बदल जाती हैं। प्रत्येक भाव हैं और विचार से तो साँसे बदलती ही हैं, लेकिन प्राणायाम करने वालों की साँसे स्वतंत्र होती है। गहरी और आनन्ददायक होती हैं। प्राणायाम करते समय तीन क्रियाएँ करते हैं- (1) पूरक (2) कुम्भक (3) रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और ब्राह्य वृत्ति कहते हैं।
(1) पूरक - अर्थात नियंत्रित गति से श्वाँस अंदर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे या तेजी से दोनों ही तरीके से जब भीतर खींचते हैं तो उसमें लय और अनुपात का होना आवश्यक है।
(2) कुम्भक- अंदर की हुई श्वास लगातार को क्षमतानुसार रोककर रखने की होता, क्रिया को कुम्भकं कहते हैं। आपके श्वास को अंदर रोकने की । क्रिया को आंतरिक कुंभक और श्वास रोग को बाहर छोड़कर पुनः नहीं लेकर कुछ देर रुकने की क्रिया को बाहरी कुंभक लोगों कहते हैं। इसमें भी लय और अनुपात है, का होना आवश्यक है।
रेचक - अंदर ली हुई श्वास को नहीं नियंत्रित गति से छोड़ने की क्रिया हैं। को रेचक कहते हैं। श्वास धीरे-धीरे बदल या तेजी से दोनों ही तरीके से जब उठा छोड़ते हैं तो उसमें लय और भाव अनुपात का होना आवश्यक है।