हमारा राष्ट्रीय पक्षी मोर खत्म होता हुआ

हमारा वन्यजीव-जन्तुओं की जब कोई प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हो जाती है तब भारत में उसके संरक्षण के प्रयास एवं उपाय शुरू किए जाते हैं। राजा- महाराजाओं के शिकार के शोक से जब बाघों की दुनिया सिमट गई तब उसके संरक्षण के कार्य शुरू किए गए। एक सदी पूर्व चीता भारत की धरती से गायब हो चुका है। जब बाघ, शेर, तेंदुआ, हाथी, गेंडा तथा गिों को बचाने के साथ ही जब राजकीय पक्षी सारस के अस्तित्व पर संकट गहराया तब उसको संरक्षण देने के उद्देश्य से गणना कराई गई। लेकिन भारत का राष्ट्रीय लेकिन भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर अभी भी सरकारी उपेक्षा का शिकार है जिससे मोरों की संख्या में भी गिरावट आने लगी है। इसके बाद भी मोरों को संरक्षण देने के लिए भारत सरकार द्वारा अभी तक काह रणनीति तैयार नहीं की गई निकट भविष्य में मोरों की भी दुनिया सिमट सकती है. इस संभावना से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है। 


साल पूरे हो रहे श्रीराम भारत के एक ऐसे महानायक हैं जिनके प्रति देशवासियों में अगाध श्रद्धा है। भारत में तो बहुत से शहरों, कस्वों, गांवों तथा व्यक्तियों , के नाम राम के नाम पर हैं। भारत में ही नहीं विश्व का कोई भी कोना उनके नाम से अछूता नहीं है। विश्व भर में एक हजार से अधिक शहरों राष्ट्रीय पक्षी सन 1963 में राष्ट्रीय पक्षी का पोरब हासिल करने वाले मोर की घटती संख्या आजादी के पहले से भी आधी रह गई है। सालों से बन्यजीवों से प्रेम करने वाले अथवा वन्यजीवों के लिए कार्य कराने वाले लागे मोर की घटती संख्या पर शोर मचाते रहे हैं, लेकिन आज तक उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है। हालांकि मोरों की सिमट रही दुनिया को संज्ञान में लेकर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के सेक्शन के 43(5) (अ) और सेक्शन 44 में बदलाव की बात शुरू कर दी है। लेकिन यह भी सोचनीय है कि राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा हासिल होने के बाद भी जब तक देश में कभी मोरों की गिनती के कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। साल 2008 में भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून (डब्ल्यूआईआई) ने मोर के महत्व को देखते हुए इनकी गणना की योजना बनाकर केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजी थी, परन्तु धन को लेकर हुई आनाकानी खत्म होता से गणना का प्रस्ताव फाइलों में केद होकर गायब हो गया।


सृष्टि कंजरवेशन एंड वेलफेयर सोसाइटी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष अनूप गुप्त, उपाध्यक्ष ज्ञानी हरदीप सिंह कहते हैं कि मोर प्रत्येक भारतीय की भावना से जुड़ा है, भगवान श्रीकृष्ण से भी मोर पंख जुड़ा हुआ है और राष्ट्रीय पक्षी होने का तात्पर्य है कि राष्ट्रीय धरोहर और यह बात सभी को समझानी होगी। सरकार को सख्ती से मोर संरक्षण के लिए कार्य करने चाहिए और 'सेव टाइगर' की तरह 'सेव पीकॉक' अभियान भी सरकार को छेड़ना चाहिए। लेकिन जब मोरों की गिनती ही नहीं हुई है तो हम कैसे उनके संबंध में बात कर रहे हैं। सोसाइटी के ही डायरेक्टर डॉ० वीके अग्रवाल (रिटायर डिप्टी सीएमओ) एवं डॉ० नवीन सिंह का मानना है कि लोगों में भ्रम है कि मोर के खून से घुटनों की पालिश की जाए तो गठिया ठीक हो सकता है उससे आर्थराइटिस ठीक हो सकती है लेकिन ऐसा है नहीं, यह केवल अंधविश्वास है ज्यादातर लोग इसका मास खाने के लिए शिकार करते हैं।


पीपुल फॉर एनीमल्स के खीरी प्रतिनिधि केके मिश्रा बताते है कि मोर अपनी खूबसूरती के कारण मारा ही जाता है, साथ ही इसके पंखों का बावसायिक प्रयोग अवैध शिकार को वढावा दे रहा है। संस्था द्वारा कराए गए सर्वे में खीरी जिले में सर्वाधिक मोर मितोली के पास करनपुर ग्राम एवं मोरईताल के पास पाए गए। अन्य तमाम जगहों पर मोरों की संख्या में गिरावट पाई गई है। श्री मित्र ने बताया कि भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति आस्था रखने वाले लोग इनका संरक्षण करते हैं। लेकिन निज स्वार्थ में लोग इनका शिकार करने से परहेज नहीं करते हैं।


भारत की मानव जाति की आस्था और धार्मिक रूप से जुड़े मोर कभी गावों के किनारे खेत, खलिहान और वागों में रहते थे और यह जंगलों में भी बहुतायत में पाए जाते थे। गांवों के बढ़ते विकास, बदलते परिवेश और आधुनिकीकरण के चलते ग्रामीण क्षेत्रों से बागों का सफाया हो गया, जंगलों का विनाश अंधाधुध किया गया, जंगलों को काटकर खेती की जाने लगी है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि मोरों की दुनिया भी सिमटने लगी है। गांव के किनारे के बाग और विशालकाय पेड़ मेरों के रैन बसेरा हुआ करते थे। पेड़ों के कट जाने और वागों का सफाया होने के कारण घोषला बनाना और अडा देना उनके लिए मुश्किल भरा काम हो गया है। इसका सीधा असर यह हुआ कि उनकी वंशवृद्धि की रफ्तार में खासी कमी आयी है। इसके अतिरिक्त फसलों में कीटनाशक दवाओं के प्रयोग का असर खेत, खलिहानों में दाना चुगने वाले मोरों पर भी पड़ा है। उ०प्र० के एकमात्र पर भी पड़ा है। उ०प्र० के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के जंगलों में कभी भारी संख्या में मोर दिखायी लिए आकर्षण का केन्द्रविन्दु हुआ आपदा वाढ आदि के साथ मानवजनित कारणों के चलते जंगलों के वातावरण में परिवर्तन हुआ तो धीरे-धीरे मोरों की संख्या में गिरावट आने लगी है। स्थिति यहां तक पहुंच गयो है कि जंगल के जिन क्षेत्रों में जहा कभी मोर झुंड में दिखायी देते थे, अब इक्का-दुक्का ही मोर दिखायी देते है। मोर के संरक्षण के लिए समय रहते प्रयास नहीं किए गए तो भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोरों की दुनिया भी किताबों में सिमट कर रहे जायेगी।