कँटीली कुण्डलियाँ मैकौले की सभ्यता, पहुँच गयी हर द्वार।
अंग प्रदर्शन वस्त्र का, आई सदा बहार।।
छाई सदा बहार, जीन सबने ही धारी।
चुस्त वस्त्र सब धार, घूमते सब नर नारी।
कह कविवर 'कल्याण', लुप्त भये कुर्ता-धोती ।
भद्दे नाटक नाच, मट रहे पोता-पोती।।
टी.बी. टीबा कर रही, बिगड़े सभी प्रसंग।
राम कथा में आ गया, सैक्स सुधा का रंग।।
सैक्स सुधा रंगा, रंग गये सब नर-नारी ।
धारावाहिक कथानकों की मारा मारी ।
रात-दिवस सब हाय! पी रहे यह बीमारी।।
अंग्रेजों ने बाँट दी, हमको मुफ्ती चाय।
अब सब जन खुद पी रहे, किंचित रहा ना जाय।।
किंचित रहा ना जाय, सात बार पीवें दिन में।
सपना मैं भी हाय! चाय की आवै मन मैं ।
कह कविवर 'कल्याण'; चाय बिन काम न चालै।
शूगर कै सन्ताप, सभी की काया हाले।।
फेरी में बिकने लगी, सुरा सुरंगी चूंट।
हाय! स्वतंत्रता के मिली, मिल गई सबने छूट।।
मिल गयी सबनै छूठ, धड़ल्ले से सब पीओ।
सांस-सांस मैं चूंट भरो, निर्भय हो जीओ।।
कह कविवर 'कल्याण', भली आजादी आई।
भरे बजारौँ मतवालों ने, धूम मचाई।
राजनीति पीड़ित हुई, लोकतंत्र है त्रस्त।
स्वतंत्रता की कुंडली, कालसर्प से ग्रस्त।।
कालसर्प से ग्रस्त, पिटे जनता बेचारी।
सभी हुये हैरान, देख घोटाले भारी।।
कह कविवर 'कल्याण', मच रही मारा-मारी।
सन्त हुये सन्ताप, झुर रहे सब नार-नारी।।