पितरो को खुश करने हेतु कौवे को खिलाया जाता है खाना

हजारों वर्षों की परम्परानुसार हर वर्ष पितृपक्ष में पितरों के दिये जाने वाले भोजन के माध्यम कोवे रहे है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों से कौवे बिल्कुल भी नहीं दिखते और अपने-अपने पितरों के तर्पण हेतु लोग इसीलिए परेशान रहते हैं कि काश एक कोवा दिख जाए। जरा विचार कीजिए कि जिस देश के हर प्रांत, हर गांव में हजारों कोवे दिखते थे, काँव-काव कर घरों पर उड़कर शुभ-अशुभ संदेश देते थे, वे कौवे आखिर गये कहाँ? 


काले रंग का कोवा शाकाहारी, मासांहारी दोनों होते हैं पर कौवा मृत शरीरों का मांस भी नोंच-नोंच कर खाते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि कौवे को आंखें खाने में बड़ा मजा आता है और बड़े शौक से धीरे-धीरे एक-एक आंख निकालकर उड़ जाते हैं और किसी निर्जन में बैठकर आंख खाता है।


कौवे के आंख खाने के पीछे वह पौराणिक सत्य छिपा है कि उसकी एक ही आंख होती है, दूसरी आंख तभी से फूटी है, जब त्रेता युग में इंद्र पुत्र जयंत कौवा बनकर राम और सीता जी के पैर में चोंच गड़ाकर उड़ गया। सीता के पैर से स खून बहने लगा, तब राम ने सींक की कमान से सींक का तीर चलाया, कहते हैं उस तीर से उसकी रक्षा किसी ने नहीं की वह जिस लोक में भी गया तीर पीछा करता रहा, तब अंत में राम की शरण में आया और क्षमा याचना करके प्राणों की भीख मांगने लगा।


भगवान राम तो दयानिधि हैं, उन्होंने कौवे को क्षमा कर दिया पर एक आंख का बना दिया। तीर एक आँख में घुस गया था। कहते हैं कि तभी से कौवे बदले की भावना से जीवधारियों की आंखे निकालकर खाने लगे। लेकिन हर काल में कौवा खान लगे। लेकिन हर काल में कौवा रहा है परन्तु अव लुप्त है। रहा है परन्तु अब लुप्त है।


लुप्तता का कारण यही समझ लुप्तता का कारण यही समझ में आता है कि अब उनका भोजन मनुष्य ही खाने लगा, वह भूखा रहकर कहता रहता था कि अब मनुष्य ही मनुष्य का मांस नहीं छोड़ता। संत बनकर मांस खाते हैं, छद्म बाबा आसाराम पर अरोप है कि नाबालिगों का जिस्म तक खा जाते हैं, वे जेल में यौनाचार रूपी मांस भक्षण के आरोपी है। नेता, मंत्री, अधिकारी सब किसी ना किसी रूप में मांस भक्षण करते हैं। रिश्वत भी आदमी का मांस है। राजस्थान का मंत्री नौकरी दिलाने के बहाने महिला का मांस खाता है। अधिकाश महिला का मांस खाता है। अधिकांश लोग तो सत्ता में बैठे हैं या आधकार लोग तो सत्ता में बैठे हैं या अधिकार संपन्न हैं वे रिश्वत के रूप में मनुष्य संपन्न हे वे रिश्वत के रूप में मनुष्य का मांस खाते हैं। लालू यादव जैसे लोग जानवर के चारे से बनने वाला मांस रक्त खाने के आरोपी हैं फिर कौवे क्या खायें यह समस्या विकट है। पुलिस, प्रशासन, अध्यापक, पंडित, बुद्धिजीवी सब मांसाहारी हैं जो पहले इक्का-दुक्का थे वे अब कहते हैं भाई मैं भी दूध का धुला नहीं हूँ।


रामकथा के अमर गायक कागभुसुण्ड जी ने पूरी कौवा जाति को गौरवान्वित किया था परन्तु मनुष्यों ने उनका भोजन भक्ष लिया।


“अब तो झूठ बोले कौवा काटे" के गीतकार विट्ठल भाई पटेल, भी नहीं रहें क्योंकि कौवे पस्त थे। इस गीत २० को सुनकर व कहा तक लाखों लोगों को काटते रहे, भाग गये। अब कोई महिला गीत भी नहीं विकट गाती कि “सोने चोंच, मढ़ाऊ र , कागा, पिया घर आयें" अब मुडेर पर कौवा नहीं बैठता जो मेहमान आने अब का सूचक था, किसी के सिर पर भी धुला नहीं बैठता जो अनिष्ट का सूचक था। लगता है कौवे भी पितरों के गायक सामने पहुंच गये कि जब तुम्हारी जाति संतानें सब मांस भक्षण करती हैं तो परन्तु तुम भी मेरा (कौवे का) मांस कागौर के रूप में ग्रहण कर लो।