सब विद्याओं का उद्गम कहलाते हैं भगवान शिवजी

सब विद्याओं भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। ये कल्याण की जन्मभूमि तथा परम कल्याणमय हैं। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के जैसा कोई नहीं है। वे सभी के मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियन्ता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं। वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के सम्पूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान, विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। सभी पुराणों में भगवान शिव के दिव्य और रमणीय चरित्रों का चित्रण किया गया है। संपूर्ण विश्व में शिव मंदिर, ज्योतिर्लिग, स्वयंभूलिंग से लेकर छोटे-छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा की जाती है। भगवान शिव शंकर का परिवार भी बहुत व्यापक है। एकादश रूद्र, रूद्राणियां, चौसठ योगिनियां, षोडश मातृकाएं, भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं। माता पार्वती की सख्यिों में विजया आदि प्रसिद्ध हैं। गणपति परिवार में उनकी पत्न सिद्धि-बुद्धि तथा शुभ और लाभ दो पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। कार्तिकेय की पत्नी देवसना तथा वाहन मयूर है। भगवती पार्वती का वाहन सिंह है और स्वयं भगवान शंकर धर्मावतार नन्दी पर आरुढ़ होते हैं।


स्कन्द पुराण के अनुसार यह प्रसिद्ध है कि एक बार भगवान धर्म की इच्छा हुई कि मैं देवाधिदेव भगवान शंकर का वाहन बनूं। इसके लिए उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की। अंत में भगवान शंकर ने उस पर अनुग्रह किया और उन्हें अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार भगवान धर्म ही नन्दी वृषभ के रूप में सदा के लिए भगवान शिव के वाहन बन गए। बाण, रावण, चण्डी, भंगी आदि शिव के मुख्य पार्षद हैं। इनके द्वार रक्षक के रूप में कीर्तिमुख प्रसिद्ध हैं, इनकी पूजा के बाद ही शिव मंदिर में प्रवेश करके शिवपूजा का विधान है। इससे भगवान शंकर परम प्रसन्न होते हैं। यद्यपि भगवान शंकर सर्वत्र व्याप्त हैं तथापि काशी और कैलास इनके मुख्य स्थान हैं। भक्तों के हृदय में तो ये सर्वदा निवास करते हैं। इनके मुख्य आयुध रूप त्रिशुल, टंक, कृपाण, वज्र, अग्नियुक्त उपासना कपाल, सर्प घण्टा, अयुष पाश तथा पिनाक धनुष हैं। भगवान शंकर ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श हैं। वह भयंकर रूद्ररूप हैं तो भोलेनाथ भी हैं। दुष्ट दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन दुखियों की सहायता करने में दयालुता के समुद्र हैं। जिसने आपको प्रसन्न कर लिया मिलकर उसको मनमाना वरदान मिला। आपकी दया का कोई पार नहीं है। तपस्या आपका त्याग अनुपम है। अन्य सभी उस देवता समुद्र मंथन से निकले हुए लक्ष्मी, अपने कामधेनु, कल्पवृक्ष और अमृत ले गये, इस आप अपने भाग का हलाहल पान वृषभ करके संसार की रक्षा के लिए शिव नीलकण्ठ बन गए। भगवान शंकर , एकपत्नीव्रत के अनुपम आदर्श हैं। पार्षद भगवान शंकर ही संगीत और नृत्य कला के आदि आचार्य हैं। ताण्डव के नृत्य करते समय इनके डमरू से सात करके स्वरों का प्रादूर्भाव हुआ। इनका इससे ताण्डव ही नृत्य कला का प्रारम्भ है। । लिंग रूप से उनकी उपासना का हैं तात्पर्य यह है कि शिव, पुरुष लिंग मुख्य यप से इस प्रकृति रूपी संसार में स्थित सर्वदा हैं। यही सृष्टि की उत्पत्ति का मूल रूप है। 'त्र्यम्बकं यजामहे...' शिव उपासना का वेद मंत्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे पहले शिव मंदिरों का ही उल्लेख है। जब भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई की तो सबसे पहले रामेश्वरम् में उन्होंने भगवान शिव की स्थापना और पूजा की थी।