तपस्वी एवं परोपकारी महर्षि दधीचि

'मार्षअथर्वा' की पत्नी “शान्ति" से 'दधिची' का जन्म हुआ था। छोटेपन से ही दधीचि बड़े शान्त, परोपकारी और भगवान के भक्त थे। उन्हें भगवान शंकर जी का भजन करना और तपस्या में लगे रहना ही अच्छा लगता था। कुछ बड़े होते ही पिता से हिमालय पर्वत के एक पवित्र शिखर पर सैकड़ों वर्षों तक तप करते रहे। त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने जब देवताओं को हराकर वर्ग पर अधिकार कर लिया और देवताओ को असुरों को जीतने का कोई उपाय नहीं सुझ पाया तो वे भगवान नारायण के शरण में गए। भगवान नारायण ने देवताओं से कहा- 'वृत्रासुर को कोई भी किसी साध पारण हथियार से नहीं मार सकता। वह पहले जन्म में शेषजी का भक्त था। उसे तो महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र के द्वारा इन्द्र ही मार सकते हैं। महर्षि दधीचि ने इतनी बड़ी तपस्या की है कि उनकी हड्डियों में अपार शक्ति आ गयी है । ये इतने परोपकारी हैं कि मांगने पर अपनी हड्डी अवश्य दे देंगे।


महर्षि दधीचि जैसे तपस्वी को मार तो सकता नहीं था। देवता जानते थे किये क्रोध करें, तो किसी को भी भस्म कर सकते हैं। इसलिए सब देवता उनके आश्रम में आ गए। ऋषि ने देवताओं का आदर किया उनकी पूजा की और पूछा- 'आप लोग किसलिए आये हैं ?' देवताओं के राजा इन्द्र ने कहा- 'वृत्रासुर ने हमारे घर-द्वार छीन लिये हैं। हम लोग बहुत दुःखी होकर आपकी शरण में आए हैं। साधु पुरुष अपने पास आये दुःखी लोगों का दुःख, कष्ट उठाकर भी दूर करतें है।'


महर्षि दधीचि बोले- 'मैं ब्राह्मण हूँ। युद्ध करना मेरा धर्म नहीं है। असुर ने मेरा कोई अपराध किया नहीं, इसलिए उसे शाप देने से मुझे पाप लगेगा?


इन्द्र ने कहा- 'हम सब तो आपसे यह प्रार्थना करने आये हैं कि आप अपनी हहियाँ दे दें, तो उससे वज्र बनाकर हम वृत्रासुर को जीत लेंगे।'


प्रार्थना करके इन्द्र जी चुप हो गये। लेकिन महर्षि दधीचि को बड़ी प्रसन्नता हुयी। वे बोले- 'यह तो बहुत उत्तम बात है। मृत्यु तो एक दिन होनी ही है। किसी का उपकार करने में मृत्यु हो जाय, इससे उत्तम बात और क्या होगी? मैं अभी शरीर छोड़ रहा हूँ। आप लोग मेरी सब हड़ियाँ लें लें। इस प्रकार महर्षि ने आसन लगाया, नेत्र बंद किये और योग के द्वारा शरीर छोड़ दिया। जंगल की गाय वहां आ गयीं और उन्होंने दधीचि के देह का सब चमड़ा, मांस आदि चाट लिया। उनकी हहियों से विश्वकर्मा ने वज्र बनाया। उसी वज्र से इन्द्र जी ने वृत्रासुर को मारा। दूसरों का उपकार करने के लिए अपने शरीर की हड़ियां तक देने वाले महर्षि दधीचि मरकर भी अमर हो गये।