त्रिमूर्ति का संगम श्री दत्तात्रेय

विभिन्न धर्म और संप्रदायों की भूमि भारत में तपस्वी भगवान दत्तात्रेय ने दत्त संप्रदाय की स्थापना की । दत्तात्रेय यानी त्रिमर्ति का वह संगम, जिसके प्रति लोगों के मन में अगाध श्रद्धा हैं । इनकी भी एक कथा है।


ब्रह्मा के सात पुत्र, जो प्रसिद्ध ऋषि माने गए, उनमें अत्रि सबसे बड़े थे। उनकी पत्नी महासती अनुसुइया कर्दम ऋषि और देवाहुति की पुत्री थीं । अत्रि ऋषि और आनुसुइया ने एक ऐसे पुत्र की कामना की, जो निर्गुण परब्रह्म (ईश्वर) का अवतार हो। इसके लिए ऋषि ने अन्न-जल त्याग कर घनघोर तपस्या की। वे रुक्ष पर्वत पर १०० वर्ष तक एक पांव पर खड़े रहे । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके सामने प्रकट हए और वरदान मांगने को कहा। ऋषि की इच्छा जान कर उन्होंने कहा कि निर्गण परब्रह्म क्योंकि दिखाई नहीं दे सकते, इसलिए वे उनके रूप में प्रकट हए हैं। उन्होंने ऋषि की इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया।


समय आने पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अत्रि ऋषि के यहां चंद्र, दत्तात्रेय और दुर्वासा ऋषि के रूप में जन्म लिया। इनमें चंद्र और दुर्वासा ऋषि ने तपस्या का निर्णय लिया और घर छोड़कर चले गए, लेकिन जाने से पहले पिता को यह आश्वासन दे कर गए कि वे सूक्ष्म रूप में श्री दत्तात्रेय के भीतर मौजूद रहेंगे। दत्तात्रेय अत्रि ऋषि के साथ रहने वाले थे। इस प्रकार निराकार परब्रह्म, जिन्होंने तीन रूपों में जन्म लिया, भगवान दत्तात्रेय के रूप में फिर से संयुक्त हो गए और लोगों को ज्ञान का प्रकाश दिया । श्रीमद् भगवत गीता में बताए गए ईश्वर के २४ अवतारों में दत्तात्रेय अवधूत छठे अवतार थे।


दत्तात्रेय की आकृति तीन सिर और छह बांह (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) वाली है। उनका पूरा शरीर भभूति से ढका है। उगते सूर्य का दिव्य प्रकाश उनके आसपास दिखाई पड़ता है और लंबे बालों की जटाएं सिर के ऊपर बंधी है उन्हान हिरण के खाल की पोशाक पहनी है । भक्तों के मन में यह आकृति विशेष श्रद्धा जगाती है । वे अपने हाथों में माता, कमंडल, डमरू, त्रिशूल, शंख और चक्र थामे हैं। उनके पीछे खड़ी गाय धरती मां का प्रतीक है।


तपस्वी दत्तात्रेय के शिष्य विभिन्न युगों में मौजूद रहे हैं, जैसे परशुराम, सहस्रअर्जुन, प्रहलाद । वे संकट के समय अपने भक्तों की रक्षा करते हैं, साथ ही उन्हें जीवन और मृत्यु के चक्र से निकाल कर मोक्ष भी प्रदान करते हैं।